Touching poetry by unknown writer.

ज़िंदा हूँ मगर ज़िन्दगी से दूर हूँ मैं
आज क्यूँ इस क़दर मजबूर हूँ मैं

बिना जुर्म के ही सज़ा मिलती है मुझे
किस से कहूँ की आख़िर बे-क़सूर हूँ मैं

मेरी ख़ामोशिओं का सबब हैं ये ग़म मेरे
फ़िर क्यूँ दुनिया समझती है की मग़रूर हूँ मैं

आज फ़िर शिद्दत-ए-ग़म ने रुला दिया मुझे
आज लगता है के ज़ख्मो से चूर हूँ मैं

- Unknown